‘‘मातृभाषा ‘हिन्दी’ के बिना हिन्दुस्तान अधूरा है...’’
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की पंक्तियों से अनुप्राणित होते हुए उन्हांेने कहाः-
‘‘वह प्रदीप जो दीख रहा है, झिलमिल दूर नहीं है,
थक कर बैठ गए क्यूं भाई, मंजिल दूर नहीं है।’’
मातृभाषा प्रेमियों से पूर्णतः भरे सभागार को देखकर अत्यंत हर्षित होते हुए महासचिव महोदय ने कहा कि आज हम सभी हिन्दी-प्रेमी केवल ‘हिन्दी दिवस’ मनाने नहीं बल्कि मातृभाषा हिन्दी के सम्मान में ‘राष्ट्रीय उत्सव’ मनाने को एकट्ठा हुए है।
जिस तरह राष्ट्रभाषा के बिना कोई राष्ट्र पंगु हो जाता है, उसी तरह हिन्दी के बिना हिन्दुस्तान अधूरा प्रतीत होता है।
‘‘हिन्दी, राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न है...’’
प्रश्न केवल भाषा का नहीं है, प्रश्न हमारे स्वाभिमान का है, राष्ट्रीय अस्मिता का है। शिकागो में पहली बार राष्ट्रीय स्वाभिमान जगाने का काम स्वामी विवेकानंद जी ने किया था। इस संदर्भ में राजगोपालाचारी जी ने कहा था- यदि स्वामी जी नहीं आये होते तो स्वतंत्रता आंदोलन की तैयारी में कुछ और विलंब हो जाता।
‘‘हिन्दी भाषा एक महान भाषा है, यह पूरे हिन्दुस्तान की भाषा है।’’
मातृभाषा प्रेमियों के लिए यह दुर्भाग्य की बात है कि अपने राष्ट्र की भाषा को प्रतिस्थापित करने हेतु ‘हिन्दी-दिवस’ जैसे कार्यक्रम आयोजित करने की जरूरत पड़ती है और सौभाग्य की बात यह है कि आजादी के बाद तत्कालीन सरकार के अधिकांशतः नेता गैर हिन्दी प्रदेशों से थे जिन्होंने राष्ट्रभाषा के रूप में ‘हिन्दी’ की पुरजोर वकालत की, अंततः राजभाषा के रूप में हिन्दी को संवैधानिक रूप से अंगीकृत किया गया।
‘‘आज ‘हिंदी’ विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है।’’
हिंदी का विरोध करने वाले व्यक्तियों, संस्थानों एवं राजनैतिक दलों को ’राष्ट्रविरोधी हरकत का दोषी’ कहने में मुझे तनिक भी संशय नहीं। अंग्रेज चले गए पर अंग्रेजियत छोड़ गए। सच कहूं तो मुझे बहुत तरस आती है ऐसे अंग्रेजीदां लोगों पर, इन्हें शुद्ध-शुद्ध अंग्रेजी बोलना-लिखना नहीं आता फिर भी अंग्रेजियत का बोझ ढ़ोते रहते हैं कथित रूप से संभ्रांत दिखने के लिए।
‘‘हिन्दी’ हिन्दुस्तान का पवित्र संकल्प है।’’
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की इन पंक्तियों को कोट करते हुए विशिष्ट अतिथि के रूप में उन्होंने अपने उद्बोधन की शुरूआत कीः-
‘‘गवाक्ष तब भी था, जब वह खोला न गया,
सच तब भी था, जब वह बोला न गया।’’
‘‘भारत के सभी भाषाओं की लिपि ‘देवनागरी’ और राष्ट्रभाषा ‘हिन्दी’ हो।’’
मातृभाषा ‘हिन्दी’ को न सिर्फ उत्तर भारतीयों ने अपितु दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के अधिसंख्य लोगों ने अंगीकार किया है। हिन्दी भारत के जन-जन की भाषा है, हमारे अंतःकरण की भाषा है। एक प्रशासक के रूप में मैंने अपने संपूर्ण सेवाकाल में हिन्दी के संवर्धन हेतु यथासंभव कार्य संपादित किया और अन्य सहकर्मियों को भी प्रेरित किया जिससे मुझे आज भी अत्यंत गर्व की अनुभूति होती है।
‘‘मातृभाषा ‘हिन्दी’ हृदय की भाषा है।’’
मातृभाषा की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि जब कार्यालय मंे हम सहकर्मी बंधु आपस में बातचीत करते हैं तो प्रायः अंग्रेजी में ही बातें करते हैं, लेकिन उस वार्तालाप में वो आत्मीयता नहीं झलकती जो अपनी मातृभाषा में बात करने में आनंद मिलता है।
दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन
गाँधी एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसे समझने के लिए वैचारिकी का मजबूत होना ठीक उसी तरह आवश्यक है जैसे विज्ञान को समझने के लिए तर्क, समाज को समझने के लिए साहचर्य और संवेदना, साहित्य को समझने के लिए सृजन, राजनीति को समझने के लिए राग व विवेक, संस्कृति को समझने के लिए सद्भावना और संबंधों को समझने के लिए भावनाओं इत्यादि का होना अनिवार्य है। गाँधी के व्यक्तित्व का आयाम इतना विशाल और विहंगम है कि इसे जितने कोणों से देखें उतने ही दृष्टिकोणों का निर्माण होता है। विश्व हिंदी परिषद द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती के शुभ अवसर पर आयोजित इस सम्मेलन का उद्देश्य आज के समय में वाद, संवाद और सन्देश के विमर्श में बहुआयामी गाँधी के व्यक्तित्व और कृतित्व को वैश्विक परिदृश्य में अवलोकित करने का विनम्र प्रयास है।